आपातकाल से भ्रष्टाचार तक: जेपी से अन्ना हजारे तक
जितना बड़ा सच ये है कि जिस ईमानदारी से क्रांतिकारियों ने जंगे आजादीकी लड़ाई लड़ी, उससे बड़ा सच ये है कि उस ईमानदारी से देश आजाद होने के
बाद राजनीतिज्ञयों ने देश की सेवा नहीं की। देश आजाद हुआ। पंडित जवाहर
लाल नेहरू को देश के प्रथम प्रधानमंत्री होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। एक लम्बे
समय तक नेहरू परिवार को देश की सेवा करने का मौका मिला। जैसा कि
होता है, सत्ता के इर्द-गिर्द धीरे-धीरे सत्ता लौलुप व्यक्तियों का जमावड़ा होता
चला गया। नैतिकता और देशसेवा सर्वोपरि होने की बजाय समाज छोटे-छोटे
जातिगत खाने में बंटता चला गया। यदि ईमानदारी पूर्ण शब्द प्रयोग करूं तो
राजनीतिज्ञयों ने अपने फायदे के लिये यह कार्य भी किया। क्या विडम्बना है
पहले देश बंटा और फिर जिनको मिलजुलकर देश का विकास करना था वो
खुद ही बंट गये। इससे खूबसूरत आजादी का तोहफा और क्या हो सकता है?
चापलूसी की प्रवृति राजनीति में आदरणीय मानी जाने लगी। लोग हदों को
लांघकर चापलूसी करने लगे। इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा। देश में
श्रीमती इंदीरा गांधी की हुकूमत थी।
उस वक्त कांग्रेस के एक प्रतिष्ठित नेता हुआ करते थे देवकांत बरूआ। इन्होंने
इंदीरा गांधी के लिये कहा - "Indira is India and India is Indira" भारतीय
राजनीति में इसे सबसे बड़ी चापलूसी का दर्जा प्रदान किया गया। जहां व्यक्ति
को देश का पर्याय बताया गया। ये सच है कि भारतीय प्रधानमंत्रियों की
श्रृंखला में निर्भीक निणर्य लेने की क्षमता के आधार पर श्रीमती इंदिरा गांधी
को अव्वल स्थान दिया जाता है। बांग्लादेश का निर्माण उनकी कूटनीतिक
सफलता का सर्वोच्च शिखर है। वहीं आपात काल उनकी तानाशाही प्रवृति का
दिग्दर्शन कराती है। इसके लिये राष्ट्र उनको कभी क्षमा नहीं करेगा।
"1971 में श्रीमती इंदीरा गांधी दो तिहाई बहुमत लेकर सत्ता में आईं। यह वही
दौर था जब श्रीमती गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के तीन-तीन न्यायाधीशों की
वरिष्ठता की उपेक्षा कर अपनी पंसद के ए.एन.रे को भारत मुख्य न्यायाधीश के
पद पर नियुक्त किया। 12 जून 1975 को हाईकोर्ट इलाहाबाद के जज
"जगमोहन लाल सिन्हा" का बहुप्रतीक्षित फैसला आया। विद्वान जज ने
श्रीमती इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को गैरकानूनी घोषित करते हुये उन्हें
छह वर्षों के लिये चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया। इस फैसले ने पूरे देश
में हड़कम्प मचा दिया। नेतृत्व परिवर्तन की बाते उठने लगी। इस फैसले से
बौखलायी श्रीमती गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 25 जून 1975
को चार बजे सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ
हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। मधुलिमये ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का
स्वागत करते हुये श्रीमती इंदिरा गांधी को गद्दी छोड़ने की सलाह दी और
उसके बाद वो हुआ जो आजाद भारत में कभी नहीं हुआ था। 25 जून को ही
आधी रात को पूरे देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गयी। दमन और
गिरफ्तारियों का दौर प्रारम्भ हो गया।"
जयप्रकाश नारायण ने देश के युवाओं को स्कूल कालेज छोड़कर इस
आपातकाल का मुकाबला करने का आह्वान किया। 25 जून 1975 से 21 जून
1977 तक देश में आपातकाल लागू रहा। मुझे आज भी वो दिन याद है। जब
वाराणसी में उदय प्रताप कालेज के संस्थापन दिवस समारोह के अवसर पर
25 नवंबर को आयोजित कवि सम्मेलन में भाग लेने के लिये गोपाल दास
नीरज को आमंत्रित किया गया था। पूरे विद्यालय में डर और रोमांच का
वातावरण व्याप्त था। उसके वावजूद छात्रों की बहुत बड़ी तादाद कवि सम्मेलन
को सुनने के लिये आयी। कार्यक्रम के दौरान कभी भी पुलिसिया हस्तक्षेप की
आशंका व्यक्त की जा रही थी। किसी अनहोनी से सभी का दिल धड़क रहा था।
करीब 12 बजे गोपालदास नीरज माइक पर आये। उनकी पहली ही कविता ने
उनके तेवर का अन्दाज दे दिया। छात्रों ने भी पूरी गर्मजोशी के साथ नीरज का
साथ दिया। वो पंकितयां आज भी जेहन में गूजती है। नीरज ने कहा था - ''
आज के दौर के राजनीतिज्ञों को भेडि़या समझे और लोकतंत्र को हिरण। इस
प्रतिबिम्ब को ध्यान में रखते हुये आप मेरी कविता सुने -
भेडियों के झुण्ड में फंस गया है आज कोई हिरन,
अब तो हर इक हाथ से पत्थर उछलना चाहिये,
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिये,
रोज जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह,
अब जनाजा जोर से उनका निकलना चाहिये,
छीनता हो जब तुम्हारा हक कोई उस वक्त तो,
आंख से आंसू नही शोला निकलना चाहिये।
जाहिर सी बात थी इस बागी तेवर की कविता पाठ के बाद नीरज की
गिरफ्तारी होनी ही थी। दिल्ली जाते ही वो गिरफ्तार कर लिये गये। वह कवि
सम्मेलन यूपी कालेज के इतिहास का मील का पत्थर है जिसने देश को एक
नयी उर्जा प्रदान की। आखिरकार जयप्रकाश नारायण द्वारा दी गयी देश को
नेतृत्व रंग लायी। सारी इंतिहा के बाद आखिरकार 1977 में चुनाव की घोषणा
के साथ ही आपातकाल का अन्त हुआ। फिर से लोकतंत्र की गाडी पटरी पर
आयी। जनता पार्टी दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता में वापस आयी। मोरार जी
देसाई प्रधानमंत्री बने। मानव स्वभाव के अनुरूप ही चन्द महीने में ही लोग
आपातकाल का दर्द भूल गये। कुर्सी के लिये पुन: खींचतान प्रारम्भ हो गयी।
मात्र 33 महीने में ही देश को नये चुनाव का बोझ उठाना पड़ा।
1977 के बाद की कहानी बड़ी दिलचस्प और आत्ममंथन करने वाली है।
घोटाले-दर-घोटाले ने जहां शुरू में जनता को चौकाया वहीं बाद में जनता ने
इसे अपनी नियती मान लिया। देश के राजनेता देश की समस्याओं का
तात्कालीन और सतही समाधान निकाल कर खुश होने लगे। आंतकवाद,
क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता ने देश में अपनी गहरी जड़ें जमा लीं। नेतृत्व
समाधान विहिन हो गया और जनता बेबस। भ्रष्टाचार ने देश में इतनी गहरी
जड़ें जमायी कि वो शिष्टाचार का पयार्य बन गया। देश में ईमानदारी की बात
करने वाले वेवकूफ समझे जाने लगे। बेबस और लाचार जनता ने इसे स्वीकार
कर लिया। जिस नेतृत्व से आशा थी उसे वह अपनी विश्वसनीयता लगातार
खोती चली गयी। कल तक जो चोरी-छिपे होता था वो आज धड़ल्ले से होने
लगा। कमीशन शब्द सम्मान का सूचक बन गया। ऐसे में दो बडे़ आन्दोलनों
ने देश में जान फूंक दी। युवा वर्ग आगे आया।
"योग गुरु रामदेव" ने योग शिक्षा देते हुये पूरे राष्ट्र का ध्यान विदेशों में जमा
काले धन की तरफ आकृष्ट किया। सवाल राजनेताओं को परेशान करने वाला
था। आजादी के बाद तुलनात्मक दृष्टिकोण से इनकी चल-अचल सम्पत्ति राष्ट्र
को चौंकाने वाली है। इससे भी ज्यादा इस सवाल पर उनका व्यवहार चौंकाने
वाला था। सवाल का उत्तर देने तथा विदेशों से काला धन वापस लाने की
बजाय रामदेव का ही विरोध प्रारम्भ कर दिया गया। इसकी चरम परिणीति
दिल्ली के रामलीला मैदान पर आधी रात को पुलिस द्वारा लाठी चार्ज एवं अश्रु
गैस के रूप में हुयी। सोये हुये लोगों पर लाठी चार्ज का औचित्य समझ से परे
है। इस घटनाक्रम ने एक बार पुन: आपातकाल की याद ताजा कर दी। यह
समझ से परे है, विदेशों में जमा काला धन देश में वापस लाने की बात कर
रामदेव जी ने आखिर क्या गुनाह कर दिया ??
एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल के समर्थन में जब 5 अप्रैल को अन्ना
हजारे जन्तर मन्तर पर अनशन पर बैठे तो उन्हें भी नहीं पता था कि एक
लम्बे समय से भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता उनके समर्थन में उनके पीछे आ खड़ी
होगी। युवकों ने आगे बढ़कर साथ दिया। लेकिन सरकार ने अन्ना टीम के
प्रस्ताव को हल्के में लिया और नकारात्मक रूख का प्रदर्शन किया। सरकार ने
आनन-फानन में एक समिति बनाकर सम्भावित खतरे को टाला और 16
अगस्त तक संसद में लोकपाल विधेयक पारित कराने की बात स्वीकार कर
ली। अगस्त से शुरू हुये मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया
वह कमजोर और जन लोकपाल के सर्वथा विपरीत था। अन्ना हजारे ने इसके
खिलाफ अपने पूर्व घोषित तिथि 16 अगस्त से पुन: अनशन पर जाने की
बात दुहराई। बाद में उनका अनशन रंग लाया और सरकार ने आखिरकार
विधेयक संसद में रखा। लेकिन कमजोर विधेयक चौतरफा आलोचना का
आधार बना, अन्तत: राज्य सभा में वो पारित न हो सका। आन्दोलन अपने
तमाम सवालों के साथ आज भी दोराहे पर खड़ा है।
क्या मजबूत जनलोकपाल बिल बन पायेगा?
विदेशों से क्या काला धन वापिस आ पायेगा?
राजनेता क्या कभी अपने व्यकितगत स्वार्थ से उपर उठकर देश के लिये कभी
सोचेगे?
है पूरे हिन्दुस्तान में कोई ऐसा नेता है जो छाती ठोंककर कह सके कि हाँ हम
हैं राष्ट्रीय स्तर के नेता? जाति विशेष के नेता बनकर हम राष्ट्रीय सोच
विकसित नहीं कर सकते।
आज जरूरत है पुन: युवाओं को राष्ट्रीय चिन्तन की। राष्ट्रीय सोच की और
तमाम बुराइयों के खिलाफ उठ खडे़ होने की। कुर्बानियों के नींव पर देश खड़ा
हुआ करता है। जरूरत है इस बात को समझने की और राष्ट्र के राजनेताओं को
समझाने की। आखिर कब तक हमारी ये जंग जयप्रकाश नारायण और अन्ना
हजारे लड़ते रहेंगे?
उठो नौजवानों देश को सम्भालो - देखो कहीं दूर से आवाज आ रही है -
ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी
जो शहीद हुये हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी।
--- लेखक डा.(मेजर) अरविंद कुमार सिंह देश के सैन्य बल में अधिकारी हैं
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